शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का निधन, शोक में डूबा सम्पूर्ण देश

देश की चार प्रमुख पीठों में शामिल ज्योतिष और द्वारकाशारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का आज यानी रविवार को निधन हो गया। उन्होंने नरसिंहपुर जिले में स्थित गोटेगांव के समीप झोतेश्वर धाम में अंतिम सांस ली।

सिवनी/ नरसिंहपुर। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का निधन हो गया है। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर के झोतेश्वर मंदिर में उन्होंने अंतिम सांस ली। वे 98 साल पूरे कर चुके थे और उन्होंने 99वें साल में प्रवेश किया था वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे। हाल ही में 3 सितंबर को उन्होंने अपना 99वां जन्मदिन मनाया था। वह द्वारका की शारदा पीठ और ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य थे।

शंकराचार्य ने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। आजादी के आंदोलन में भी भाग लिया। स्वरूपानंद सरस्वती को हिंदुओं का सबसे बड़ा धर्मगुरु माना जाता था। अंतिम समय में शंकराचार्य के अनुयायी और शिष्य उनके समीप थे। उनके बृह्मलीन होने की सूचना के बाद आसपास के क्षेत्रों से भक्तों की भीड़ आश्रम की ओर पहुंचने लगी।

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म…

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म मध्यप्रदेश राज्य के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। महज नौ साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ धर्म की यात्रा शुरू कर दी थी। इस दौरान वो उत्तरप्रदेश के काशी भी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1942 के इस दौर में वो महज 19 साल की उम्र में क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए थे। क्योंकि उस समय देश में अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई चल रही थी।

स्वामी स्वरूपानंद ने ली दंड दीक्षा

स्वामी स्वरूपानंद ने साल 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। साल 1950 में ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।

आजादी की लड़ाई भी लड़ी और जेल भी गए

साल 1942 की बात है। तब स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की उम्र महज 19 साल थी। उस वक्त पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का आंदोलन चल रहा था। स्वामी स्वरूपानंद भी इसमें शामिल हुए। उन्होंने आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाई। तब स्वामी स्वरूपानंद क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए थे। अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए उन्हें पहले वाराणसी की जेल में नौ महीने और फिर मध्य प्रदेश की जेल में छह महीने रहना पड़ा। इस दौरान वह करपात्री महाराज के राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे।

1950 में दंडी संन्यासी बने, फिर शंकराचार्य की उपाधि भी मिली

1950 में स्वामी स्वरूपानंद दंडी संन्यासी बनाये गए। शास्त्रों के अनुसार दंडी संन्यासी केवल ब्राह्मण ही बन सकते हैं। दंडी संन्यासी को ग्रहस्थ जीवन से दूर रहना पड़ता है। उस दौरान उन्होंने ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-संन्यास की दीक्षा ली थी। इसके बाद से ही उनकी पहचान स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के रूप में हुई। 1981 में स्वामी स्वरूपानंद को शंकराचार्य की उपाधि मिली।

विश्व की अपूर्णीय क्षति परमहंसी आश्रम गोटेगांव में हिंदू धर्म सम्राट पूज्य गुरुदेव ज्योतिष एवं द्वारिका पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज जी का आज बैकुंठ धाम गमन हुआ पृथ्वीटाइम्स परिवार श्रद्धांजलि अर्पित करता है

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